शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

हमारा भविष्य

He or she may not be your own child. but they are creating your vibrant Gujarat by sacrificing their study and often their lives. they are creating your 'middle class' heaven where you are comfortable with your conscience.

अगर ये बच्चे कल अपने मालिकों को मार डालेंगे, डाइनेमाइट लेकर इस समाज की संस्थाओं को नष्ट कर देंगे, खतरनाक गुनहगार बन कर आपकी निंद लूंट लेंगे, आतंक फेलायेंगे, तब उन्हे खत्म करने के लिए आप गोलियां चलायेंगे, फास्ट ट्रेक कोर्ट बिठायेंगे, सिक्युरिटिझ के नये उपकरण बसायेंगे, मगर अभी फिलहाल आप कुछ नहीं करेंगे.



 











गुरुवार, 16 अगस्त 2012

गुजरात सरकार की वाइब्रन्ट बाल नीति

लफ़्फ़ाज़ी में ला-जवाब गुजरात सरकार ने बाल मजदूर को दिया है एक नया शब्द - बाल श्रम योगी.



चूंकि सरकार का श्रम विभाग जब इन बाल मजदूरों को मुक्त करवाता है, तब उन की उंगलियों के लेता है निशान और मासूम बच्चे समजते हैं अपने आप को अपराधी. बाल मजदूरी करवाने वाले व्यापारी, मालिकों के नहीं लिए जाते उंगलियों के निशान
तो फिर इन बच्चों को बाल श्रम योगी की जगह बाल श्रम कैदी कहेना उचित नहीं होगा क्या ?
भगवान की तरह ये बच्चें सब जगह पर होते है ................................................
.......................................... गुजरात हाइकोर्ट की केन्टीन में भी
    जब श्रम विभाग इन बच्चों को मजदूरी से मुक्त करवाता है, तब उन्हे पुनस्थापन के लिए देता है अगरबत्ती की कीट
और, बाल मजदूरी प्रतिबंध कानून के मुताबिक अगरबत्ती की उत्पादन प्रक्रिया प्रतिबंधित लीस्ट में है और उसमें बाल मजदूों से काम लेना कानूनन अपराध है.
(स्पष्टता - हमारे ब्लोग पर गुजरात हाइकोर्ट की केन्टीन के इस बाल मजदूर की पोस्ट आने के बाद अब हाइकोर्ट की केन्टीन में ऐसे बाल मजदूर देखे नहीं जाते. अगर आप ऐसा मान लेंगे कि वाइब्रन्ट गुजरात सरकार के प्रगतिशील लेबर डीपार्टमेन्ट ने उस बच्चें का पुनस्थापन करवाया होगा, तो आप गलत सोच रहे है, क्योंक वह बच्चा राजस्थान के डुंगरपुर का था, आदिवासी था, जिनके बारे में खुद गुजरात सरकार नेशनल कमिशन फोर धी प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की टीम को कह चूकी है कि राजस्थान से आते बच्चों की जिम्मेदारी राजस्थान सरकार की है.)

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

जुवेनाइल होम के बच्चों के साथ

अहमदाबाद के खानपुर इलाके में एक रिमान्ड हॉम है, जो अब ओब्झर्वेशन हॉम के नाम से जाना जाता है. बलात्कार, खून, चोरी जैसे गंभीर गुनाह करनेवाले बच्चें हो या फिर मंदिरो के आगे भीख मांगनेवाले बच्चें हो- सभी को यहां लाया जाता है. चालीस लाख की आबादीवाले शहेर में सिर्फ एक ही हॉम है. जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मुताबिक यह हॉम गैरकानूनी है. एक्ट के मुताबिक बच्चों की दो केटेगरी है. एक, कानून के साथ संघर्ष में आये हुए बच्चें (children in conflict with law) और दो, सुरक्षा तथा मदद की जरूरतवाले बच्चें (children in need of care and protection). कानून यह भी कहेता है कि इन दोनों केटेगरी के बच्चों को एक साथ रखा न जाय, उनके लिये अलग निवासी व्यवस्था होनी चाहिये. अहमदाबाद के हॉम में दोनों केटेगरी के बच्चें एक ही मकान में, एक ही परिसर में साथ रहते है. कमिशन फोर धी प्रोटेक्शन ऑफ चाईल्ड राईटस (एनसीपीसीआर) की टीम अहमदाबाद आती है और इस हॉम की मुलाकात लेती है मगर परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं आता.

मेगा सिटी अहमदाबाद में आकर्षक, विशाल मॉल, मल्टिप्लेक्स बने हैं, नये पुलिस स्टेशन बने है, बडे बडे भव्य मंदिरों को निर्माण हुआ है, फ्लाय ओवर ब्रिज भी बहुत सारे बने है, लेकिन चालीस लाख की आबादीवाले शहेर में किसी को भी बच्चों के लिये विशेष जुवेनाईल हॉम बनाने की जरूरत महेसूस नहीं हो रही. राज्य के समाज सुरक्षा विभाग से हमने इस हॉम के बारे में 4 मई, 2012 को सूचना अधिकार कानून तहत जानकारी मांगी थी. जवाब आया कि यह होम हमारे कार्यक्षेत्र में नहीं है.

शहेर में बाल अपराधियों की संख्या में बढोत्तरी हुई, बाल मजदूरी का प्रमाण भी बढा लेकिन बच्चों के पुन:स्थापन के लिये पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण नहीं हो रहा. चाईल्ड लाईन नाम की संस्था मंदिरों के आगे भीख मांगने वाले बच्चों को यहां लाकर पटक देती है. तीन-चार साल के बच्चें बिलख-बिलख कर रोते है, कोई उन्हें "जादु की झप्पी" देनेवाला नहीं है. आपका बच्चा लापता हो गया और ऐसे हॉम में आ गया तो आपको मालूम भी नहीं होता. आप हॉम की मुलाकात भी नहीं ले सकते. हॉम के संचालक कहेंगे कि बच्चों की आईडेन्टीटी गुप्त रहेनी चाहिये.
हम हॉम में इन बच्चों से मिले. एक्ट के मुताबिक अब बाल अपराधी शब्द की जगह "कानून के साथ संघर्ष में आये बच्चें" शब्द का प्रयोग करना है और इन बच्चों की लिये गिरफ्तार, रिमान्ड, आरोपी, चार्जशीट, ट्रायल, प्रोसीक्युशन, वोरन्ट, समन्स, कन्विक्सन, इनमेइट, डेलिकवन्ट, नीग्लेक्टेड, कस्टडी या जेल जैसे शब्दो के उपयोग पर संपूर्णत: प्रतिबंध है. जहां भी पुलिस के द्वारा ऐसे शब्दो का प्रयोग हो वहां उन्हें कानून बताना हमारा पवित्र फर्ज है क्योंकि अभी पुलिस इन शब्दो का उपयोग कर रही है. नयी शरूआत के सिद्धांत अनुसार भूतकाल में बच्चे के द्वारा किये गए किसी भी गुनाह का रिकॉर्ड पुलिस नहीं रखेगी यानि कि उसे मिटा दिया जायेगा.

जिनमें सात साल से कम सजा होती है ऐसे सभी केसों में बच्चों को जमानत पर छोडने का प्रावधान है. सिर्फ रेप, मर्डर जैसे अत्यंत गंभीर अपराधों में दोषी बच्चों को ही पुलिस गिरफ्तार कर सकती है. 31 मार्च, 2009 को गुजरात विधानसभा में कोम्पट्रोलर एन्ड ओडिटर जनरल ओफ इन्डीया (सीएजी) के द्वारा रखे गये अहेवाल में ओब्जर्वेशन हॉम की कडक आलोचना करते हुए कहा गया है कि यहां रक्षण और मदद की जरूरतवाले बच्चों के साथ ऐसे भी बच्चों को रखा जाता है जिन पर त्रासवाद के तहत तहोमत रखा गया है.

जबरजस्ती भीख मंगवाते मां-बाप, दुश्मनावट से भरी सामाजिक स्थिति, हॉम का पराया वातावरण- इन सभी मुश्किलों का हंसकर सामना करते इन बच्चों के साथ अगर आप थोडा सा भी वक्त गुजारते है तो उसकी मजा कुछ और ही है. इसके लिये आप को सेलीब्रीटी बनने की जरूरत नहीं, बच्चों के लिये तो आप सेलीब्रीटी ही है.

कानून में "रक्षण और मदद की जरूरतवाले बच्चों" की व्याख्या की गई है. जिसके अनुसार 1. कौटुंबिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय और मुलकी संघर्षो के कारण कामचलाऊ या स्थायीरूप से असरग्रस्त बच्चें तथा अस्पृश्यता और सामाजिक-आर्थिक बाहिष्कार के भोग बने बच्चें और 2, ऐसे बच्चें जिनके माता-पिता अथवा वाली अपने व्यवसाय और जीवननिर्वाह के कारण अथवा विकासलक्षी कार्यो, कानून का अमल होने से या उनके कुटुंब की जमीन जैसे संसाधनो का राज्य द्वारा संपादन होने के कारण उन्हें शिक्षण के अलावा प्राथमिक जरूरतें, कामचलाऊ अथवा अन्य किसी रूप में उपलब्ध कराने में समर्थ ना हो. परप्रांत में से गुजरात में रोजीरोटी के लिये पलायन करके आते इंट भठ्ठा, बी.टी. कॉटन में काम करते सभी मजदूरों के बच्चें " रक्षण और मदद की जरूरतवाले बच्चों" की व्याख्या में आते है. 2002 में हुए नरसंहार के कारण, रीवरफ्रन्ट योजना के कारण, आंतरिक रूप से विस्थापित हुए सभी बच्चें भी इस व्याख्या में आ जाते है.

अमरिका में सन् 1990 से 1981 के समय दौरान (जिसे प्रगतिशील काल कहते है) बाल मजदूरी और बाल अधिकार के लिये जागृति शुरु हो गई थी. वैसे तो 18वीं-19वीं सदी से राजकीय-सामाजिक सुधारकों और मनोवैज्ञानिकों के संशोधनों ने बाल अपराधियों के प्रति समाज के अभिगम में परिवर्तन लाना शुरू कर दिया था. बाल अपराधियों को सजा देने के बदले उनके पुन:स्थापन की तरफदारी करनेवाले कर्मशीलों ने सन् 1824 में अमरिका में प्रथम न्यूयोर्क हाउस ऑफ रेफ्युज की स्थापना की. इसके पहले इन बाल अपराधियों को पुख्त लोगों के साथ जेल में रखा जाता था. सन् 1899 से संघ राज्यो नें भी किशोर सुधार गृहो की स्थापना का प्रारंभ किया. सन् 1960 तक अमरिका की जुवेनाइल कोर्टों ने 18 साल से कम उम्र वाले बच्चों से संबंधित सभी केसों को अपने अधीन कर लिया था. और इन केसों को पुख्त लोगों की फौजदारी न्याय प्रणाली में सिर्फ जुवेनाइल कोर्टो की मंजूरी लेकर ही तबदील किया जा सकता था. हमने हाल ही में 2002 में जुवेनाईल जस्टिस एक्ट बनाया और गुजरात सरकार ने ग्यारहा साल बाद अभी फरवरी 2011 में इस कानून के नियम बनाये.
रक्षण और मदद की जरूरतवाले बच्चों के लिये जरूरी ढांचा या सुविधायें उपलब्ध करने या मुहैया करवाने के लिये जिल्ला के सत्ताधीशों तथा पुलिस को जरूरी हुक्म देने की सत्ता जुवेनाईल बोर्ड के पास है. इसलिय जहां भी हमें ऐसा बच्चा नजर आये तो उसकी जानकारी तुरंत ही लेखित में रजिस्टर्ड पोस्ट से बोर्ड को बताये, अगर बोर्ड एक सप्ताह में जवाब नहीं देता है तो समाज कल्याण के सचिव तथा मंत्री को बताये और वो भी उचित समय में जवाब ना दे तो अपने राज्य की हाईकोर्ट में फरियाद करें.
कानून के अनुसार इन बच्चों के लिये उनके आरोग्य संबंधित, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक और प्रशिक्षण तथा आराम, सर्जनात्मकता और खेलकूद की जरूरतें, संबंधो साथ ही सभी प्रकार के दुरउपयोग, उपेक्षा और दुर्वयवहार से रक्षण, सामाजिक सुग्रथन, फॉलो अप और पुन:स्थापन की जरूरतों के लिये उनकी उम्र और जेन्डर अनुसार उनके साथ कन्सल्टेशन करके व्यक्तिगत रक्षण की योजना बनाना सरकार का फर्ज है.
कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे की जानकारी मिलते ही संबंधित पुलिस अधिकारी नजदीक के पुलिस स्टेशन में नियुक्त बाल कल्याण अधिकारी (जुवेनाइल वेल्फेर ऑफिसर) को जानकारी देगा. यह अधिकारी कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे के माता-पिता को इसकी जानकारी देगा और जिस समय तथा जहां उसे पेश करना है उस बोर्ड का एड्रेस देगा. हिरासत में लिये बच्चें को नजदीक के पुलिस स्टेशन के बाल कल्याण अधिकारी के चार्ज में रखा जायेगा, जो चौबीस घंटे के अंदर बोर्ड के समक्ष उस बच्चे को पेश करेगा. (कलम 10 (1)). अगर ऐसे बाल कल्याण अधिकारी की नियुक्ति ना हुई हो तो बच्चे को हिरासत में लेनेवाला पुलिस अधिकारी उसे बोर्ड के समक्ष पेश करेगा. (कलम 63 (2)).
इस तरह के बच्चों को हिरासत में लेनेवाला पुलिस अधिकारी उसे किसी भी स्थिति में लोकअप में नहीं रख सकता  और अगर नजदीक के पुलिस स्टेशन में बाल कल्याण अधिकारी हो तो वह बच्चे को उस अधिकारी के चार्ज में तबदील करने में विलंब नही कर सकता. हर पुलिस स्टेशन में जिल्ला के सभी नियुक्त बाल कल्याण अधिकारीओं की लिस्ट और मुख्य जुवेनाइल इकाई के सभ्यों की लिस्ट दिखाई दे उस तरह प्रदर्शित करनी चाहिये. अगर किसी पुलिस स्टेशन में इस की लिस्ट देखने ना मिले तो जिल्ला के बोर्ड को इसकी जानकारी दें.
खून, बलात्कार जैसे गंभीर गुनाह में या पुख्त लोगों के साथ मिलकर किये अपराधों को छोड़कर अन्य सामान्य गुनाह में कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे की एफआईआर लिखना या चार्जशीट फाईल करना जरूरी नहीं है. उसकी जानकारी सिर्फ रोजाना डायरी में लिखी जायेगी और उसके बाद बच्चें की सामाजिक पृष्ठभूमि और हिरासत में लेने संबंधी परिस्थिति और उस पर लगे आरोप का अहेवाल बोर्ड की पहेली सुनवाई के पहले भेज देगा.
गुजरात में लापता होनेवाले बच्चों के मुद्दो पर शोर-गुल मचानेवालें लोग, पत्रकारों को एक बात जान लेना जरूरी है कि घर छोडकर भाग जानेवाले बच्चों और मानव-व्यापार के भोग बननेवाले बच्चों को बचाने के लिये राज्य में जुवेनाईल जस्टिस के ढांचे और संस्थाओं को मजबूत बनाना अत्यंत जरूरी है. माध्यमों को मीसींग चिल्ड्रन के मुद्दो को सेन्सेशनलाइज करके सिर्फ फोटो छापने में ही रस है इस आक्षेप को नकारा नहीं जा सकता.
एक चान्स दिजीए हमें इस देश के बहेतर नागरिक बनने का..........

शनिवार, 28 जुलाई 2012

बीटी कोटन के सर्जनात्मक बाल मजदूर

गुजरात के बीटी कोटन के खेतों में हर साल जुलाई से
 सप्टेम्बर की मौसम में हजारों आदिवासी बच्चों को 
मजदूरी के काम में लगाया जाता है. 
 




















उन बच्चों में नाबालिग बच्चियां भी होती है, जिनका
यौन शोषण गुजरात के बुद्धिजीवियों, मीडीया तथा
शासक वर्ग के लिए शर्म की बात नहीं




पिछले साल यह बच्चे अपनी सर्जनात्मकता के नये
आयाम की तलाश में निकल पडे सांढोसी गांव में





सुबह पांच बजे से मजदूरी की चक्की में पिसते हाथों ने 
थाम लिया रंगो की दुनिया का रोमांच

यह महज संयोग नहीं था कि ज्यादातर बच्चों ने
कागज़ पर चित्रण किया हाथ का, जो उनके अस्तित्व का
मानो एक पर्याय ही था
हिन्दु कट्टरपंथी संगठन ऐसे ही बच्चों के हाथ में त्रिशुल 
थमाकर नकारात्मक हिंसा के रास्ते पर धकेलते है
 लेकिन उन्हे चाहिए सर्जनात्मक अभिव्यक्ति तथा अपनी
मानवीय गरीमा की पहचान

बनासकांठा तथा साबरकांठा जिल्लों के बहुत सारे आदिवासी
बहुल गांवों के बच्चे बीटी कोटन की मजदूरी के चपेट में
एक बार आ जाते हैं तो वापस स्कुल नहीं जाते
इस सर्जनात्मक शिबिर का आयोजन किया था दलित
हक रक्षक मंच तथा आदिवासी सर्वींगी विकास संघ ने






सोमवार, 2 अप्रैल 2012

बीटी कोटन का बुचड़खाना और आदिवासी बाल मजदूर


हडाद की मीटींग में भरत सुना रहा है अपनी आपबीती

रक्षाबंधन के दिन को सांढोसी का भरत डाभी किस तरह याद करता है? पिछले साल वो इस दिन कुंवारवा गांव के बीटी कोटन के खेतों में सुबह पांच बजे उठकर मजदूरी करता था। रक्षाबंधन के दिन घर जाकर बहेन से राखी बंधवाने का कैसा उमंग उसके मन में था! परन्तु खेत मालिक ने उसको घर नहीं जाने दिया। बदले में तीन किलो पकोडा दे दिया। उसके साथ सांढोसी के पच्चीस बच्चे थे। उनमें से किसी के भी गले से पकोडा नहीं उतरा।
तेरह वर्ष की आयु में ऐसा काम करना किसे अच्छा लगेगा? भोर होते ही आंखो में आधी-अधूरी नींद हो और कुछ सपने सांढोसी की सीमा, खेतों और आंगन के हो। जम्हाई लेते लेते पांच बजे फूल चेक करने के लिये जाना। उठने में थोडी सी भी देरी हो जाये तो, खेत मालिक की लात पेट पर पडी ही समझो। उपर से उनकी गालियां अलग से सुनो। घर से सौ किलोमीटर दूर अनजान मनुष्यों (इन्हें मनुष्य कहें तो कैसे कहें?) के बीच ये सब सहना कितना कठिन है यह तो सिर्फ भरत ही जान सकता है!

फूल को चेक करते समय कितनी सावधानी रखनी पडती है ये भरत अच्छी तरह जानता है। बीटी कोटन के नाजुक फूलो की पंखुडिया अगर तूट जाये तो, किसान को बडा घाटा होता है, आत्महत्या करने की नौबत आ जाती है। बडी मल्टीनेशनल कंपनीओ से मंहगी कींमत पर बीज लेकर बैठा है बेचारा! अपने बेटे-बेटीओं को सेल्फ फायनान्स कॉलेजो में डोक्टर और इन्जींनियर बनाने का कितना बडा टेन्शन उसके सिर पर है! भरत जैसे हजारों बच्चों को जीते जी आत्महत्या करने की स्थिति में वह डाल रहा है अगर इसकी जानकारी उसे हो तो भी क्या?

सुबह के पांच बजे से सख्त काम करने के बाद आठ बजे काली चाय मिलती है। चाय पीकर सुस्ती को भगाने का भरत के पास वक्त नही है, क्योंकि फिर से बारह बजे तक उसे नर लगाने तो जाना ही है। (नर यानि पुंकेसर) और बाद में घर से लाये बर्तनों में खुद ही रोटी पकानी है। बुनियादी तालिम शब्द भरत ने कभी सुना ही नही। इतनी छोटी सी उम्र में ऐसी बडी बाते सुनकर भी क्या करना है? सोचने के लिए थोडा भी समय नही है। रोटी के साथ किसान के घर से रोज आलू की सब्जी और कढी आती है, उसे ही पकवान समझकर खाना है। खाने के बाद आराम करने की बात तो जाने दो। दोपहर को फूल पीरोने जाना होता है। शाम को एक-दूसरे का चेहरा दिखाई ना दे तब तक काम करना है।

रात को खाना बनाकर भी आराम नहीं मिलता। पूरे दिन के गंदे कपडे तो धोने के तो बाकी ही है! घर से 23 जुलाई के दिन मेट(एजन्ट) के साथ निकला तब उसके पास सिर्फ दो जोडी ही कपडे थे। रोज के सो रुपये देने की बात हुई थी। नवागाम का किसान हसमुख चौधरी स्वंय सांढोसी गांव के रहनेवाले मनीष डाभी के साथ सांढोसी आया था। भरत के साथ चोथी कक्षा तक पढाई करनेवाला नरेश भी कुंवारवा गया था। ये तो चार सालों से बीटी कोटन के खेतों में जाता है। चौदह साल का प्रविण भी उनके साथ था। उसने तो कभी स्कूल की सीढ़ी भी नहीं देखी है। चौदह साल का शैलेष 4 साल से काम पर जाता है। जुमाभाई का पीन्टु 15 साल का है। और बिल्कुल अनपढ है। ये इस साल भी डीसा के पास बीटी कोटन में मजदूरी के लिये गया है। उसके साथ सांढोसी के चार लडके भी है। बीटी कोटन की सीजन यूं तो सिर्फ जुलाई से सप्टेम्बर के तीन महिने तक होती है, परन्तु एक सीजन में काम करने के लिये स्कूल छोड देने के बाद फिर से स्कूल जाकर पढना कितना मुश्किल है ये तो सिर्फ पीन्टु जैसे बच्चों को ही पता होगा।

हसमुख चौधरी का गांव नवागाम (दियोदर तालुका) है, परन्तु उसका मामा गोंविदभाई कांकरेज तालुका के कुंवारवा में खेती करता है। मामा-भान्जे मिलकर भागीदारी में बीटी कोटन की खेती करते है। नवागाम में हसमुख के खेतों में तीन दिन काम करने के बाद भरत और उसके साथी मजदूर कुंवारवा में गोंविदभाई के खेत में काम करने के लिये गये। सभी ने लगभग चालीस दिनों तक काम किया और रक्षाबंधन का त्यौहार आया। सब को सांढोसी जाने का मन हुआ इसलिये हसमुख से कहा। उसेने तीन किलो पकोडा खिलाकर सब को पटा लिया।
बीटी कोटन के खेतो में चालीस दिन तनातोड मेहनत करने के बाद भी पगार के बदले गाली खाकर ये 26 लोग 13 सितम्बर को कुंवारवा से निकलकर नवागाम गये और वहां से शिहोरी गये। यहां आकर दिनेश डाभी ने फिर से हसमुख को फोन किया, इसलिये उसे बुलाकर 1500 रु. दिये। शिहोरी से डीसा बस में, डीसा से पालनपुर होकर दांता जीप में पहुंचे। दांता आने के बाद पैसे कम पडे तो सभी ने चलना शुरु किया। थोडे बचे पैसे से मूंगफली और गुड लिया और सब ने मिल-बांटकर खाया। थककर चकनाचूर हो गये थे, भरत जैसे बच्चों से चला नही जा रहा था। ये लोग आधे में हाईवे के बगल में रात को सो गये थे। अंबाजी हजार हाथवाली माता का दर्शन करने के लिये लोग शौक से जाते हैं। ये बीटी कोटन के बाल मजदूरों का संघ था। उन्हें रास्ते में खाना तो दूर कोई पानी पीलानेवाला भी नहीं था। सांढोसी से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर कुंवारवा आया है।

मजदूरी लिये बिना अपमानित होकर सांढोसी आने के बाद में उनके मन में थोडी-थोडी मजदूरी पाने की आशा थी। इसलिये तो जब हसमुख ने मनीष डाभी को फोन करके पैसे लेने के लिये बुलाया तब सभी बडे ही उमंग के साथ पैसे लेने के लिये दौडे। लेकिन, कुंवारवा जाने के बाद उन्हें जो अनुभव हुआ वो पहले के हुए अनुभव से भी ज्यादा कठिन था। कुंवारवा गये तब सब भूखे थे। दारु पीकर आये हसमुख ने खाना खिलाने से मना कर दिया। एक कागज पर सब की सही करवा रहा था। मनीषभाई ने सही करने से मना कर दिया तो, उनके गाल पर धडाधड चप्पल मारने लगा और वहां से उन्हे निकाल दिया।

10 ओक्टोबर, 2010 को पालनपुर के वकील दिनेश परमार ने हसमुख चौधरी को रजिस्टर्ड पोस्ट से एक नोटिस भेजी और उसकी नकल कांकरेज (शिहोरी) के मददनीश सरकारी श्रम अधिकारी की कचेरी को भेज दिया। श्रम कचेरी ने 4 नवेम्बर, 2010 को हसमुख चौधरी को लघुत्तम वेतन धारा के तहत हुई फरियाद की सुनवाई में 18 नवेम्बर के दिन हाजिर रहने की नोटिस भेजी। सरकार ने अभी तक बीटी कोटन के कामगीरी को बच्चों के लिये जोखमी उघोग या प्रक्रिया की सूची में शामिल नही किया है। इसलिये तो बीटी कोटन में काम पर बाल मजदूरो को रखनेवाले किसानो के सामने कानूनी कार्यवाही नही हो सकती। श्रम कचेरी या कलेक्टेर कचेरी भी हमारा काम नियमन का है, प्रतिबंध का नही,ऐसा कहकर खिसक जाते है।

भरत जैसे हजारों बच्चों का बचपन बीटी कोटन के बुचड़खानों में आज कत्ल हो रहा है। यह गुजरात है। यहां के लोग अहिंसा के पुजारी है। गौवंश को बचाने के लिए आकाश पाताल एक करते हैं। मगर ये बच्चों के बारे में बोलना उन्हे मुनासिब नहीं लगता।

(नोंध: पीछले साल इन बच्चों के शोषण के खिलाफ हमने नेशनल कमिशन फोर धी प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) में शिकायत की थी। इसके सीलसीले में एक इन्कवायरी चली थी। ऐसी एक इन्कवायरी में उपस्थित बच्चों का विडीयो रेकोर्डिंग हमने किया था। यह लेख उसके आधारीत है।)